मैथिली कविताः पत्रकार

भ्रष्टाचारमेँ डूबल पत्रकार
साँच नुका क’ क रहल व्यापार,
पैसा आ पदकेँ लालचमेँ,
पत्रकारसँ बनल चाटुकार।
जे छल कहियो समाजक ऐना,
जिनका पर समाज करैत छल भरोसा,
आई ओ भरोसा सुली पर लटैक दम तोडि रहल
किछु चाटुकारक चक्करमेँ पत्रकार घिसरी काटि रहल ।
जे सामाजक चारिम स्तम्भ ओ आब धीरे–धीरे गुमनाम भ रहल,
देशक चारिम अंग भ्रष्टाचारक भूकम्पक धक्कामें चरैक क’ फाटि रहल ।
सत्ताक गन्दा खेलमे कलमक ताकत मेटा रहल,
नाफा–नोक्सानक गणितमे अस्तित्व अपन गुमा रहल।
कोना कहु स्वयंकेँ पत्रकार?
किछुगोटेक किरदानीसँ मुरि झुकि रहल,
जे स्वयं बनि गेल व्यापारी पत्रकार
त के उठाओत भ्रष्टाचार विरुद्ध आवाज?
मुदा बुझि रहल जनता,
पत्रकार आ पत्रुकारक पहिचान क रहल जनता
पर्दा पाछुक नायक आ पर्दा आगूक खलनायक,
सभक असली रूप चिन्हि रहल जनता।
(झा नेपाल पत्रकार महासंघ मधेशकी उपाध्यक्ष हुन। यो कविता उनकै फेवुकबाट साभार गरिएको हो।)


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